भाषा

हरिऔध जी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में ही कविता की है, किंतु उनकी अधिकांश रचनाएँ खड़ी बोली में ही हैं।
हरिऔध की भाषा प्रौढ़, प्रांजल और आकर्षक है। कहीं-कहीं उसमें उर्दू-फारसी के भी शब्द आ गए हैं। नवीन और अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का तो इतनी अधिकता है कि कहीं-कहीं उनकी कविता हिंदी की न होकर संस्कृत की सी ही प्रतीत होने लगती है। राधा का रूप-वर्णन करते समय देखिए- रूपोद्याम प्रफुल्ल प्रायः कलिका राकेंदु-बिंबानना, तन्वंगी कल-हासिनी सुरसि का क्रीड़ा-कला पुत्तली। शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि-सी लावण्य लीलामयी, श्री राधा-मृदु भाषिणा मृगदगी-माधुर्य की मूर्ति थी।
भाषा पर हरिऔध जी का अद्भुत अधिकार प्राप्त था। एक ओर जहाँ उन्होंने संस्कृत-गर्भित उच्च साहित्यिक भाषा में कविता लिखी वहाँ दूसरी ओर उन्होंने सरल तथा मुहावरेदार व्यावहारिक भाषा को भी सफलतापूर्वक अपनाया। उनके चौपदों की भाषा इसी प्रकार की है। एक उदाहरण लीजिए- नहीं मिलते आँखों वाले,पड़ा अंधेरे से है पाला। कलेजा किसने कब थामा, देख छिलते दिल का छाला।।

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